स्रोत: द हिंदू संपादकीय (छात्रों की समझ के लिए अनुकूलित)
मूल शीर्षक: “तालिबान से बातचीत: भारत-अफगानिस्तान संबंध“
तारीख: 14 अक्टूबर, 2025
परिचय: एक कूटनीतिक चुनौती
एक महत्वपूर्ण और विवादास्पद कदम में, भारत ने हाल ही में अफगानिस्तान के कार्यवाहक विदेश मंत्री अमीर खान मुत्तकी की मेजबानी की। यह 2021 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद दोनों पक्षों के बीच सबसे उच्च-स्तरीय engagement था। द हिंदू के विश्लेषण के अनुसार, यह भारत के लिए एक बड़े रणनीतिक बदलाव का संकेत है। यह एक ऐसे राष्ट्र का उदाहरण है जो एक कूटनीतिक रस्सी पर चल रहा है—वह अपने मूलभूत सिद्धांतों और अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा के खिलाफ अपनी सुरक्षा के व्यावहारिक हितों को संतुलित करने की कोशिश कर रहा है।
भारत तालिबान से क्यों बात कर रहा है? “व्यावहारिकता” का तर्क
द हिंदू संपादकीय भारत के इस कदम के पीछे कई ठोस और व्यावहारिक कारण बताता है:
- राष्ट्रीय सुरक्षा: सबसे बड़ा कारण भारत के पश्चिमी flank से आने वाले आतंकी खतरे को कम करना है। काबुल में एक मित्र सरकार भारत-विरोधी आतंकी गुटों द्वारा अफगान भूभाग के इस्तेमाल को रोक सकती है।
- निवेश की सुरक्षा: भारत ने अफगानिस्तान में बांधों, सड़कों और संसद भवन जैसी परियोजनाओं में अरबों रुपये का निवेश किया है। वहां के मौजूदा शासकों से संपर्क इन परिसंपत्तियों और कर्मियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने का एक तरीका है।
- “दुश्मन का दुश्मन” समीकरण: अफगानिस्तान-पाकिस्तान संबंधों में गिरावट के साथ, तालिबान, जो कभी पाकिस्तान का proxy था, अब भारत के पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ एक उपयोगी हथियार साबित हो सकता है।
- क्षेत्र में कदमताल: रूस, चीन और ईरान जैसी अन्य प्रमुख शक्तियां पहले से ही तालिबान से संबंध बना रही हैं। अगर भारत अलग-थलग रहा, तो उसे इस क्षेत्र में अपना प्रभाव खोने का खतरा है।
एक बड़ा बदलाव और मान्यता की ओर एक कदम
इस यात्रा के ठोस परिणाम भी सामने आए। भारत ने काबुल में अपना दूतावास upgrade करने और राजनयिकों के आदान-प्रदान पर सहमति जताई। यह तालिबान सरकार को औपचारिक मान्यता देने की दिशा में एक कदम है—अब तक केवल रूस ने ही ऐसा कदम उठाया है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि तालिबान ने भारत को आश्वासन दिया कि उसकी जमीन का इस्तेमाल भारत के खिलाफ हमलों के लिए नहीं किया जाएगा, जो उनके पहले के रुख के उलट है।
विवाद: जहां भारत का रुख स्पष्ट नहीं था
हालांकि, द हिंदू के अनुसार, यह यात्रा कुछ गलतियों की वजह से भी चर्चा में रही। एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान तालिबान का झंडा लगाया गया और किसी महिला पत्रकार को आमंत्रित नहीं किया गया, जिससे आक्रोश फैल गया। इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है कि भारत सरकार ने तालिबान की पिछड़ी नीतियों के बारे में अपनी चिंताओं को सार्वजनिक रूप से उठाने का एक critical अवसर गंवा दिया, जैसे कि:
- महिलाओं की शिक्षा और रोजगार पर प्रतिबंध।
- एक inclusive सरकार का अभाव।
- अल्पसंख्यकों के साथ व्यवहार।
निष्कर्ष: मुख्य दुविधा
द हिंदू का विश्लेषण हमारे सामने एक महत्वपूर्ण सवाल छोड़ जाता है: भारत को कितना आगे जाना चाहिए? हालांकि क्षेत्रीय सुरक्षा के लिहाज से तालिबान से बातचीत करना एक व्यावहारिक ज़रूरत है, लेकिन मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों की बिना की पैरवी किए उन्हें खुश करने की कोशिश भारत की वैश्विक प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा सकती है। आगे का रास्ता एक नाजुक संतुलन की मांग करता है—सुरक्षा के लिए engagement जारी रखते हुए, खासकर अफगान महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की लगातार वकालत करना।
मुख्य बातें:
- विचारधारा से ऊपर व्यावहारिकता: भारत अपने तात्कालिक सुरक्षा और आर्थिक हितों को प्राथमिकता दे रहा है।
- रणनीतिक पुनर्गठन: बदलता हुआ अफगानिस्तान-पाकिस्तान समीकरण भारत के लिए एक नया रणनीतिक अवसर पैदा कर रहा है।
- मूल्यों का अंतर: भारत एक लोकतांत्रिक देश होने के अपने सिद्धांतों और एक धार्मिक शासन से deal करने के बीच सामंजस्य बैठाने की चुनौती का सामना कर रहा है।